धुलेण्डी पर एक वर्ष से कम उम्र के नवजात की ढूंढ परम्परा
होली सिर्फ अबीर, गुलाल और रंगों का पर्व नहीं है। इस त्योहार के संग कई परम्पराएं जुड़ी हैं। इनमें से एक विशेष परम्परा प्रचलित है ढूंढ़ संस्कार की। रंगीले राजस्थान में बच्चे के जन्म लेने के पश्चात् प्रथम होली के आगमन पर उसका ढूंढ़ संस्कार करवाया जाता है। यह अनूठी परम्परा अत्यन्त हर्षोल्लास एवं लाड़-प्यार के साथ पूर्ण की जाती है।
प्रचलित है रोचक लोक कथा
भारतीय त्योहारों के मनाने के पीछे कोई न कोई लोक कथा अवश्य जुड़ी हुई रही है। ढूंढ़ प्रथा के संबंध में एक लोक कथा प्रचलित है। कहते हैं – बहुत सालों पहले एक राजा था। उसके एक-एक करके पाँच सन्तानें हुई और वे सारी की सारी चल बसीं। सन्तान के अभाव में उसके महल में कोई भी त्योहार हँसी-खुशी के साथ नहीं मनाया जाता था। राजा हर समय इसी चिन्ता में खोया-खोया रहता कि उसके बाद राज्य का उत्तराधिकारी कौन बनेगा।
तभी से शुरू हुई यह पंरपरा
एक बार होली के दिन उसने जलती होली में कूद कर प्राण देने का निश्चय कर लिया। ज्यों ही वह जलती होली में कूदने को तत्पर हुआ त्यों ही भक्त प्रह्लाद अग्नि में से प्रकट हुए और उन्होंने राजा की बाँह पकड़ कर कहा ‘‘राजन। आज से ठीक नौ माह बाद तुम्हें पुत्ररत्न प्राप्त होगा किन्तु हर वर्ष उसकी उम्र ढूंढ़ करवानी होगी।‘‘ उसी दिन से ढूंढ़ की यह प्रथा आज तक चली आ रही है। ग्रामीण अंचल में होली के दिन ढूंढ़ के स्वागत में घरों के चौक को मांडनों से अलंकृत किया जाता है। इसे चौक पूरना कहा जाता है। कच्चे घरों के आँगन को गोबर व लाल मिट्टी से लीप-पोत कर साफ-सुथरा स्वरूप दिया जाता है।
माण्डणों से झलकता है उल्लास
इस शुभ अवसर पर अत्यन्त आकर्षक और खूबसूरत मांडने मांडे जाते हैं। यह कला व्यक्ति की उत्सवधर्मिता और आनन्दमयी मनः स्थिति को दर्शाती है। चंग, ढफ, ढोलक, स्वस्तिक, सूर्य, चन्द्रमा, पंखी, गेंद, पगल्या के अलावा दीपक, थाली, पान-सुपारी के मनभावन मांडनों द्वारा हृदय के उल्लास को चित्रांकन के रूप में चित्रित किया जाता है।
पगल्या और पंखी के नमूने चित्ताकर्षक और स्वस्तिक काफी भव्य रूप में बनाया जाता है। इसी स्वस्तिक के मांडने पर बाजोट बिछाकर ‘ढूंढ़‘ संस्कार सम्पन्न करवाया जाता है। ‘ढूंढ़‘ दो तरह की होती है। एक नन्हें बालक के जन्म के बाद पहली होली पर होने वाली ढूंढ़। उम्र ढूंढ़ केवल उसी स्थिति में करवाई जाती है जब कोई बालक काफी सन्तानों के गुजर जाने के बाद इकलौती संतान के रूप में जीवित रहता है। उस बालक को जीवन्त पर्यन्त ढूंढा जाता है। ढूंढ़ के समय चाचा या मोहल्ले के किसी बडे व्यक्ति को बाजोट पर बैठाकर उसकी गोद में बालक को सुला दिया जाता है। उम्र ढूंढ़ ढूंढ़वाने वाले व्यक्ति के स्थान पर कई बार उसकी अनुपस्थित में, उसके वस्त्रों को भी ढूंढ़ा जाता है।
दीर्घायु की कामना होती है इस दिन
होलिका दहन के पश्चात् ढूंढ़ने वाले लोगों का दल हाथों में लकड़ी की तलवारें लेकर निकल पड़ता है। एक के बाद एक घर में बच्चों व उम्र ढूंढ़वाने वालों को ढूंढ़ते हुए उनके दीर्घायु जीवन की कामना करता हुआ यह दल पूरे गांव का चक्कर लगाता है। ढूंढ़ के दौरान उन्ही भावनाओं को व्यक्त करते हुए एक गीत भी गाया जाता है- ‘‘आडा दीजै, पाडा दीजै, रावला खेत खड़ीजै, चन्दन बड़ोई बड़ौ। ….आड़ो पाड़ौ घी घडों, चंदन इडो रे इडो।
लोक रंगों का दरिया उमड़ता है
इन पंक्तियों को सात बार दोहराया जाता है। गीत के बोल और तलवारों की झनकार में ढूंढ़ने वालों का पूरा उत्साह व्यक्त होता है। ढूंढ़ वाले बच्चों को पकड़े हुए व्यक्ति से लगभग दो हाथ ऊपर एक तलवार तिरछी रख कर उसका दूसरा सिरा सामने की तरफ खड़ा साथी मजबूती के साथ पकड़ लेता है। इसी के ऊपर टकराई जाती है बाकी की तलवारें। इन तलवारों को अलंकृत भी किया जाता है।
उपहारों का भी अपना आनंद है होली पर
इस अवसर पर ढूंढ़ की सारी वस्तुएँ ननिहाल पक्ष या कही-कहीं भुआ द्वारा भी भेजी जाती है। इन वस्तुओं में बालक की ढूंढ़ की पोशाक के अतिरिक्त दो जोड़ी नारियल, हटड़ी, खाजे, बेर, चने, कूली, फूलियों, के साथ होली पर बनने वाले व्यंजन भी होते हैं। घर का बडा-बडेरा एक जोड़ी नारियल इन व्यंजनों के साथ फगुएं के रूप में ढूंढ़ वालों को बड़े प्यार और स्नेह के साथ भेंट के रूप में देता है। दूसरी नारियल की जोड़ी ढूंढ़ के दौरान बालक को गोदी में लेकर बैठने वाले व्यक्ति को भेंट में प्रदान की जाती है। इस तरह होली एक उम्र ढूंढ़ लाने का बहुत अच्छा अवसर है। जिसमें जलती होली में से उम्र चुरा कर अपने अजीजों के लिए दीर्घायु जीवन की मनोकामना की जाती है।
अनिता महेचा