आचार्य कालूगणी के महाप्रयाण दिवस पर कार्यक्रम
उदयपुर। शासन श्री मुनि राकेश कुमार ने सभी आचार्यों की अपनी विशेषता होती है। आचार्य कालूगणी विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। वे कहते थे कि संयम के गुणों का विकास ही मेरा श्रृंगार है। दो युग प्रधान संत आचार्य तुलसी एवं आचार्य महाप्रज्ञ भी उन्हीं की देन है।
वे श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी सभा की ओर से अणुव्रत चौक स्थित तेरापंथ भवन में आचार्य श्री कालूगणी के महाप्रयाण दिवस पर आयोजित धर्मसभा को संबोधित कर रहे थे। उन्होंने कहा कि अपने गुरु मगवा गणी के सपनों को साकार करना ही आचार्य कालूगणी का लक्ष्य था। मगवागणी ने जयाचार्य से प्रेरणा ली कि संस्कृत का विकास होना चाहिए। उस समय जैन संतों को कोई संस्कृत नहीं सिखाना चाहता था। हर तरफ जैन संतों का विरोध था। जयाचार्य ने जयपुर में संस्कृत एक विद्यार्थी से पढ़ी और वे इतने कुशाग्र थे कि संस्कृत का हाथों हाथ राजस्थानी में अनुवाद भी कर देते थे। संस्कृत के विकास में उन्होंने अनूठा योगदान दिया। एक-एक साधु के विकास में आचार्य कालूगणी ने योगदान दिया। आचार्य तुलसी द्वारा किए गए विकास की पृष्ठभूमि में आचार्य कालूगणी ही प्रमुख थे।
मुनि सुधाकर ने कहा कि आचार्य कालूगणी ने संघ को दक्षिण भारत तक पहुंचाया और संस्कृत का प्रचार-प्रसार किया। आज उनका पार्थिव शरीर भले ही हमारे बीच नहीं है लेकिन उनका स्मरण आते ही सिर नतमस्तक हो जाता है।
मुनि दीप कुमार ने गीतिका सुनाते हुए कहा कि संयम का पथ सबसे बड़ा पथ है। आचार्य कालूगणी के समक्ष कई बाधाएं आई लेकिन वे निरंतर अग्रसर रहे। आचार्य मगवागणी से दीक्षित आचार्य कालूगणी को पद के प्रति कोई मोह नहीं था। सभी साधु के योग्य बनें लेकिन उम्मीदवार कोई नहीं बने, यही उनका साध्य था।
सभा अध्यक्ष राजकुमार फत्तावत ने आचार्य कालूगणी के बारे में कहा कि भाद्रपद मास की छठीं पर संवत् 1993 में मेवाड़ के गंगापुर-भीलवाड़ा में उनका महाप्रयाण हुआ। वे 27 वर्षों तक तेरापंथ धर्मसंघ के आचार्य रहे। उनकी छत्रछाया में संघ ने ख्याति अर्जित की। बाद में उन्हीं के दीक्षित आचार्य तुलसी एवं आचार्य महाप्रज्ञ ने तेरापंथ को देश-विदेश तक पहुंचाया।
संचालन सूर्यप्रकाश मेहता ने किया। आभार तेरापंथ महिला मंडल मंत्री लक्ष्मी कोठारी ने व्यक्त किया। मुनिश्री के मंगल पाठ से कार्यक्रम का समापन हुआ।