गणगौर राजस्थान लोक-संस्कृति से जुड़ा वह उत्सव है, जो नारी-जीवन की तमाम इच्छाओं को सुख की कामनाओं से जोड़कर अभिव्यक्त करता है। यह नारी उल्लास का पर्व है।
सोलह दिन तक उल्लास और उमंग के साथ चलने वाला यह पारम्परिक पर्व सही मायने में स्त्रीत्व का उत्सव है।
एक महिला के हृदय के हर भाव को खुलकर कहने, खुलकर जीने का उत्सव। विवाह के बाद पहली गणगौर मनाने के लिए बेटियों का पीहर आना और सब कुछ भूलकर फिर से अपनी सखियों के संग उल्लास में खो जाना रिश्तों को नया जीवन दे जाता है। गणगौर भारतीय गृहस्थ जीवन का महाकाव्य है। यह लोक-उत्सव जनमानस को अपने सुख में डुबोकर पुनः ताजगी से भर देता है। इस पर्व में महिलाएं एवं युवतियां बहुविध प्रयत्नों से अपने जीवन को संवारने के लिये प्रतिबद्ध होती है, वे गाती है, मनौतियां मांगती है, उत्सवमयता को संजोती है, अच्छे वर की कामना करती है, जो विवाहित या नवविवाहित हैं वे अच्छे जीवन के सपनों के बीज बोती है, यह सब करते हुए वे समूचे परिवेश को पवित्र कर देती है। यह पर्व जीवन को उल्लास एवं खुशी से रोमांचित कर देता है।
कोयल जब बसंत के आगमन की सूचना देने लगती है। खेतों में गेहूं पकने लगता है। आम्र वृक्ष बौरों के गुच्छों की पगड़ी बांधते हैं तब बसंत के उल्लासित मौसम में गणगौर का त्यौहार मनाया जाता है। गणगौर का त्यौहार नारी जीवन की शाश्वत गाथा बताता है। यह नारी जीवन की पूर्णता की कहानी है। यह त्यौहार अपनी परम्परा में एक बेटी का विवाह है। जिसमें मां अपनी बेटी को पाल-पोसकर बड़ा करती है। उसमें नारी का संपन्न और सुखी भविष्य देखती है- उसी तरह गणगौर पर्व में जवारों को रौपा जाता है और नौ दिन तक पाला-पोसा जाता है, सींचा जाता है। धूप और हवा से उनकी रक्षा की जाती है और एक दिन बेटी का ब्याह रचा दिया जाता है। गणगौर से जुडे़ लोकगीत भी मंत्रों की तरह गाये जाते हैं। पूजा के हर समय और हर परम्परा के लिए गीत बने हुए हैं, भावों की मिठास और मनुहार लिए।
शिव गौरी के दाम्पत्य की पूजा का पर्व गणगौर मानो प्रकृति का उत्सव है। माटी की गणगौर बनती हैं और खेतों से दूब और जल भरे कलश लाकर उनकी पूजा की जाती है। गणगौर का संदेश यही है कि नारी अपनी सम्पूर्णता में ढलते हुए पवित्रता, स्नेह, सहयोग, ममत्व एवं ममत्व जैसी पवित्र भावना से अपने को अभिसिंचित करे। ऐसे आचरण से ही नारी सोलह कला सम्पन्न एवं आदर्श चरित्र की नायक बनती है। तथाकथित आधुनिक एवं पाश्चात्य संस्कृति के अंधानुकरण के कारण इस पर्व की गरिमा भी धुंधला रही है। यही कारण है कि इस पर्व का आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक महात्म्य भूलते जा रहे हैं, मर्यादाओं का दायरा सिकुड़ रहा है और नारी अपनी नारी-सुलभ गुणों को धुंधला रही है। पति-पत्नी के पवित्र रिश्ते को सुदृढ़ बनाने, एक श्रेष्ठ पारिवारिक संरचना को गठित करने, मूल्यनिष्ठ समाज की स्थापना करने, पूरे विश्व को एकसूत्र में बांधने तथा समग्र नारी समाज को पवित्रता के संकल्प में बंधकर हर एक को इसकी पहल करने का अलौकिक सन्देश देता है गणगौर।
हर युग में कुंआरी कन्याओं एवं नवविवाहिताओं का गहरा संबंध गणगौर पर्व से जुड़ा रहा है। आदर्श पारिवारिक एवं सामाजिक संरचना में इस पर्व की महत्वपूर्ण भूमिका रही है और उसी से व्यवहार में शुचिता आती है। सात्विक भावनाएं एवं नारी सुलभ उच्च ऊर्जा से तन-मन आध्यात्मिक शांति और आनन्द से सरोबार हो जाता है। जीवन निर्माण के संकल्पों से आबद्ध सभी बालिकाएं एवं महिलाएं सामूहिक भक्ति एवं सांस्कृतिकता की साधना के माध्यम से एक अनोखी सामाजिकता की भावना विकसित करती है। अपने अस्तित्व, परिवार में जीने और दाम्पत्य को सुखद बनाने की पहली शक्ति हर नारी गणगौर पर्व की पृष्ठभूमि से प्राप्त करती है। यद्यपि इसे सांस्कृतिक उत्सव के रूप में मान्यता प्राप्त है किन्तु जीवन मूल्यों की सुरक्षा एवं वैवाहिक जीवन की सुदृढ़ता में यह एक सार्थक प्रेरणा भी बना है।
गणगौर शब्द का गौरव अंतहीन पवित्र दाम्पत्य जीवन की खुशहाली से जुड़ा है। कुंआरी कन्याएं अच्छा पति पाने के लिए और नवविवाहिताएं अखंड सौभाग्य की कामना के लिए यह त्यौहार हर्षोल्लास के साथ मनाती हैं, व्रत करती हैं, सज-धज कर सोलह शृंगार के साथ गणगौर की पूजा की शुरुआत करती है। पति और पत्नी के रिश्तें को यह फौलादी सी मजबूती देने वाला त्यौहार है, वहीं कुंआरी कन्याओं के लिए आदर्श वर की इच्छा पूरी करने का मनोकामना पर्व है। यह पर्व आदर्शों की ऊंची मीनार है, सांस्कृतिक परम्पराओं की अद्वितीय कड़ी है एवं रीति-रिवाजों का मान है। गणगौर का त्यौहार होली के दूसरे दिन से ही आरंभ हो जाता है जो पूरे सोलह दिन तक लगातार चलता है। चैत्र कृष्ण प्रतिपदा से कुंआरी कन्याएं और नवविवाहिताएं प्रतिदिन गणगौर पूजती हैं, वे चैत्र शुक्ला द्वितीया (सिंजारे) के दिन किसी नदी, तालाब या सरोवर पर जाकर अपनी पूजी हुई गणगौरों को पानी पिलाती हैं और दूसरे दिन सायंकाल के समय उनका विसर्जन कर देती हैं।
सोलह दिनों तक चलने वाले इस त्यौहार में होली की राख से सोलह पीण्डियां बनाकर पाटे पर स्थापित कर आस-पास ज्वारे बोए जाते हैं। ईसर अर्थात शिव रूप में गण और गौर रूप में पार्वती को स्थापित कर उनकी पूजा की जाती है। मिट्टी से बने कलात्मक रंग-रंगीले ईसर गण-गौर झुले में झुलाए जाते हैं। सायंकाल बींद-बींनणी बनकर बागों में या मोहल्लों में रंग-बिरंगे परिधान, आभूषणों में किशोरियां और नवविवाहिताएं आमोद-प्रमोद के साथ घूमर नृत्य करती हैं, आरतियां गाती हैं, गौर पूजन के गीत गाकर खुश होती हैं। जल, रोली, मौली, काजल, मेहंदी, बिंदी, फूल, पत्ते, दूध, पाठे, हाथों में लेकर वे कामना करती हैं कि हम भाई को लड्डू देंगे, भाई हमें चुनरी देगा, हम गौर को चुनरी धारण करायेंगे, गौर हमें मनमाफिक सौभाग्य देगी।
नाचना और गाना तो इस त्यौहार का मुख्य अंग है ही। घरों के आंगन में, सालेड़ा आदि नाच की धूम मची रहती है। परदेश गए हुए इस त्यौहार पर घर लौट आते हैं। जो नहीं आते हैं उनकी बड़ी आतुरता से प्रतीक्षा की जाती है। आशा रहती है कि गणगौर की रात को जरूर आयेंगे। झुंझलाहट, आह्लाद और आशा भरी प्रतीक्षा की मीठी पीड़ा को व्यक्त करने का साधन नारी के पास केवल उनके गीत हैं। ये गीत उनकी मानसिक दशा के बोलते चित्र हैं।
गणगौर का पर्व दायित्वबोध की चेतना का संदेश हैं। इसमें नारी की अनगिनत जिम्मेदारियों के सूत्र गुम्फित होते हैं। यह पर्व उन चौराहों पर पहरा देता है जहां से जीवन आदर्शों के भटकाव की संभावनाएं हैं, यह उन आकांक्षाओं को थामता है जिनकी गति तो बहुत तेज होती है पर जो बिना उद्देश्य बेतहाशा दौड़ती है। यह पर्व नारी को शक्तिशाली और संस्कारी बनाने का अनूठा माध्यम है। वैयक्तिक स्वार्थों को एक ओर रखकर औरों को सुख बांटने और दुःख बटोरने की मनोवृत्ति का संदेश है। गणगौर कोरा कुंआरी कन्याओं या नवविवाहिताओं का ही त्यौहार ही नहीं है अपितु संपूर्ण मानवीय संवेदनाओं को प्रेम और एकता में बांधने का निष्ठासूत्र है, इसलिए गणगौर का मूल्य केवल नारी तक सीमित न होकर मानव मानव के मन तक पहुंचे।
बेला गर्ग