Udaipur. श्राद्ध लग चुके हैं। एक प्रकार से व्यापारियों के लिए बिल्कुल खाली रहने का समय। पंडितों के खाने-पीने का दौर और यजमानों के अपने पितरों को याद करने का समय। मान्यता है कि कुत्ते , कौए और गाय को खाना खिलाने से पितर प्रसन्न रहते हैं। आज के इस भौतिकवादी युग में आसानी से न तो कौए दिखते हैं न चहचहाने वाली चिडि़याएं, बया।
पेड़ों का कटना, विकास की ओर बढ़ना, शहरीकरण के भौतिकवादी अवसरों को तलाशना। इन्हीं सब में खोती जा रही हैं हमारी परंपराएं। पंडितों का मानना है कि पहले तो गाहे-बगाहे कौए या चिडि़या, बया की आवाज घरों के आसपास आ ही जाती थी लेकिन अब तो कौए ढूंढना मुश्किल सा हो गया है। गायों और कुत्तों को भी नगर निगम-परिषद वाले पकड़-पकड़कर ले जाते हैं तो इन्हेंग भी खाना खिलाना-ढूंढना कहीं मुश्किल न हो जाए, फिलहाल तो फिर भी कुत्ते, गाय आदि गली-कूचों में मिल ही जाते हैं। विकास की दौड़ में क्या़ परंपराओं को भुला दिया जाए या परंपराओं को जीवित रखने के लिए विकास की ओर जाएं ही नहीं.. यह यक्ष प्रश्न है।
इस पर सोचने की जरूरत है। युवा पीढ़ी भले ही परंपराओं पर विश्वास करे या न करे, लेकिन जब तक बुजुर्गों की पीढ़ी रहेगी.. कहीं न कहीं परंपराएं भी जीवित रहेंगी। या तो गायें जिस तरह गोशाला में रहती हैं उसी प्रकार कुत्तों की देखभाल के लिए भी कोई जगह हो ताकि इधर उधर न दौड़ना पड़े। हालांकि आवारा कुत्तों की नसबंदी का अभियान तो विभाग ने बहुत चलाया लेकिन फिर उन्हें भटकने के लिए यूं ही छोड़ दिया जाता है। शहर के पक्षीविदों के अनुसार कौए कम हो गए हैं। आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों में जाएं तो फिर भी नजर आ जाते हैं। घरों में दवा खाकर मरने वाले चूहों को खाने से भी कौओं की संख्या में कमी हो रही है।