इन दिनों देश में मानव एवं वन्य जीवों के मध्य संघर्ष एक ज्वलंत मुद्दा है। विभिन्न वन्य जीवों और मानव के बीच भिन्न-भिन्न समस्यायें हो रही हैं। देश के अलग-अलग क्षेत्रों में उन्हीं वन्य जीवों और मानवों में अलग-अलग तरह के टकराव हो रहे हैं।
मानव एवं वन्य जीव संघर्ष में एक प्रमुख मुद्दा माँसभक्षी वन्य जीवों द्वारा मवेशियों को मारना है। मानव ने सदियों से पालतू पशुओं को अपनी सम्पŸिा और आय का स्रोत माना है; यदि माँसभक्षी वन्य जीव उन्हें मारते हैं तो मनुष्य कुपित होता है और ऐसे वन्य जीवों को नष्ट करने लग जाता है।
कुछ समय पूर्व तक माँसभक्षी वन्य जीव बहुत बड़ी तादाद में पालतू पशुओं को मार देते थे, जो कि बहुत तेज़ नहीं होते हैं। पुराने वक़्त में पर्यावरणविदों ने माँसभक्षी वन्य जीवों, विशेषकर बाघ एवं बघेरा, को तीन वर्गों में बाँटा था। एक मवेशी उठा ले जाने वाला (कैटल-लिफ्टर) था तो दूसरा शिकार करने वाला था। तीसरा मानवभक्षी था, जो कि कम ही होता था। कैटल-लिफ्टर भारी-भरकम और तुलनात्मक रूप से सुस्त होते थे, जबकि शिकारी तुलनात्मक रूप से दुबले व तेज़ होते थे तथा घने जंगलों में रहते थे, जहाँ मवेशियों से सामना नहीं होता था।
18वीं शताब्दी के उŸारार्द्ध में देश में मानव आबादी का घनत्व बहुत कम था। तब बहुत फैले हुए जंगल थे जिनमें बड़ी तादाद में तृणचर थे। लेखक जे. फैरर ने 1875 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘द रॉयल बंगाल टाइगर – हिज़ लाईफ एण्ड डैथ’ में बताया है कि भारतीय सेना के कैप्टन बी. रॉजर्स् ने भारतीय वन्य जीवों की आदतों का अध्ययन किया था और उन्होंने बाघों द्वारा किए जाने वाले नुकसान पर एक पेपर लिखा था। कैप्टन रॉजर्स् ने बताया था, ”माँसभक्षी वन्य जीवों के कारण सम्पŸिा का नुकसान 10 मिलियन पाउण्ड प्रतिवर्ष था।“ इस क्षति के एक बड़े भाग के लिए बाघ ज़िम्मेदार थे। ब्रिटिश संसद ने प्रस्ताव किया कि ऐसे माँसभक्षियों को यथासम्भव नष्ट किया जाए। स्थानीय लोगों को सबूत के तौर पर मारे गए बाघ की पूँछ लाने पर प्रोत्साहन स्वरूप इनाम दिया जाता था।
अतः, हम सोच सकते हैं कि उस समय माँसभक्षी वन्य जीवों से मवेशियों को कितना नुकसान होता होगा! यह इस ओर भी संकेत करता है कि बाघ एवं बघेरा अपने भोजन के लिए जंगली तृणचरों पर ही निर्भर नहीं हैं। कम मेहनत में भोजन प्राप्त कर लेने की प्रवृŸिा के कारण माँसभक्षी वन्य जीव मवेशियों को मारने लगते हैं।
सन् 1875 में जब फैरर की पुस्तक इन आँकड़ों के साथ प्रकाशित हुई तब भारत के जंगलों में तृणचरों की संख्या इतनी अधिक थी कि उसका अनुमान लगाना भी कठिन है। दक्षिणी राजस्थान में, उदयपुर के निकट महाराणा की शिकारगाह जयसमन्द में थी। 1950 के दशक के आरम्भ में जब कभी हम लोग महाराणा की इस शिकारगाह से रात्रि के समय गुज़रते तो हमें अपने वाहन से उतरकर साँभर के झुण्डों को रास्ते से हटाना पड़ता था। साँभर, तब इतनी अधिक तादाद में थे और हमारी कार की कृत्रिम रोशनी से चकाचौंध हुए मार्ग में ही ठिठक जाते थे।
जयसमन्द में एक पहाड़ी पर ‘रूठी रानी का महल’ है। 20वीं सदी की शुरूआत में एक दफे जब महाराणा फतहसिंह ने यहाँ ‘हाका’ लगवाया तो दर्जनों साँभर पहाड़ी से गिरकर मर गए। महाराणा ने उस पहाड़ी पर फिर कभी ’हाका’ नहीं लगवाया।
जंगली तृणचरों की इतनी सघन तादाद के बावजूद, उदयपुर के महाराणा को लगभग प्रतिदिन अलग-अलग गाँवों से बाघ-बघेरे द्वारा मवेशियों को भारी नुक़सान पहुँचाने की शिकायतें मिलती रहती थीं। वे अक्सर अपने दरबारियों को इनसे निपटने के लिए भेजते रहते थे।
वर्तमान में, इस समस्या ने बड़ा रूप ले लिया है क्योंकि मवेशियों की तादाद कई गुणा बढ़ गई है। ‘मीडिया युग’ होने के कारण मानव एवं वन्य जीव संघर्ष वास्तविकता से बढ़-चढ़कर प्रस्तुत होता है।
मानव एवं वन्य जीवों के मध्य संघर्ष को कम करने के कुछ व्यावहारिक उपाय हैं। वन्य जीव, आम तौर पर, वन क्षेत्र में अपने एक निश्चित मार्ग पर चलते हैं। वन्य जीव विशेषज्ञों को इन मार्गों को चिह्नित करना चाहिए। गिद्धों व अन्य मृŸा-भक्षियों की संख्या में बहुत अधिक कमी आने के कारण मृŸा मवेशी यत्र-तत्र पड़े सड़ते रहते हैं। इन मृŸा मवेशियों को उठाकर माँसभक्षी वन्य जीवों के मार्ग में उनके भोजन के लिए डाला जा सकता है। इससे माँसभक्षी वन्य जीवों को आहार मिलेगा, मवेशियों पर उनके हमले कम होंगे तथा, परिणामस्वरूप, मानवभक्षियों की तादाद भी कम होगी।
ऐसी धारणा है कि माँसभक्षी वन्य जीव अपने द्वारा शिकार किया गया ताज़ा माँस ही खाना पसन्द करते हैं; वे मृŸा पड़े पशुओं को नहीं खाते हैं। यह एक पूर्णतया ग़लत धारणा है। दरअसल, माँसभक्षी वन्य जीव सड़ा हुआ गोश्त खाना पसन्द करते हैं क्योंकि इसे नोंचना आसान होता है। 1950 के दशक के अन्तिम वर्षों में, कुम्भलगढ़ के जंगलों में, मैंने एक बघेरे को एक मृŸा पड़ी गाय को खाते देखा; गाय की देह कीड़ों से आच्छादित थी। बघेरे ने पहले मृŸा गाय के ऊपर जमा कीड़ों को इस प्रकार चाटा मानों मलाई खा रहा हो, फिर उसने माँस खाया।
मानव एवं वन्य जीव संघर्ष को कम करने का एक अन्य तरीक़ा माँसभक्षी वन्य जीवों के भोजन के लिए तृणचरों की तादाद बढ़ाना है, जैसे कि ख़रगोश एवं जंगली सूअर जिनकी प्रजनन दर बहुत अधिक है। इनके प्रजनन के लिए वन क्षेत्र में अलग से बड़े बाड़े बनाये जा सकते हैं। संख्या बढ़ने के साथ ही अतिरिक्त ख़रगोश व जंगली सूअर वन में छोड़े जा सकते हैं, जहाँ माँसभक्षी वन्य जीवों को आहार मिल सके और वे मानव आबादी क्षेत्रों की ओर रुख़ नहीं करें।
वन विभाग को इस प्रकार के व्यावहारिक उपाय करने चाहियें जिससे कि मानव एवं वन्य जीवों में संघर्ष को कम किया जा सके।
डॉ. रज़ा एच. तहसीन