प्रकृति से पाए जाते थे होली के इन्द्रधनुषी रंग
होली की परम्परा आज से नहीं बल्कि कई वर्षो से चली आ रही है। किन्तु उस समय की होली और आज की होली में रात-दिन का अंतर आ गया है। उन दिनों होली खेलने के लिए आज की तरह के कृत्रिम रंगों वार्निश, तेजाब, कीचड़-कादा तथा तारकोल आदि का प्रयोग नहीं किया जाता था।
हर्बल रंगों से भरी थी बीते जमाने की होली
उस जमाने के रंग हरसिंगार, टेसू व ढाक के फूलों से तैयार होते थे। उपयोग में लाने से पूर्व इन्हें एक-दो दिन पानी से भरे किसी बर्तन में डाल कर भिगोया जाता था। घंटाें पानी में रहने के कारण फूलों का रंग पानी में घुलता रहता था। तब उस रंग के साथ केसर, अबीर, कुंकुम तथा चंदन डालकर फिर उसे होली खेलने के लिए काम में लाया जाता था। गुलाल भी सप्पन अथवा ब्राजील वृक्ष की छाल से तैयार किया जाता था।
अभिजात्य वर्ग के लोग साधारण पानी के स्थान पर गुलाल और केवड़ा मिश्रित जल का उपयोग करते थे तथा उसमें भी कई प्रकार के सुगन्धित पदार्थ मिलाया करते थे।
कई रूपों में थी मनोहारी पिचकारियां
उस दौर की पिचकारियां भी बड़ी अनुपम हुआ करती थी। भागवत पुराण में सिंग से बनी पिचकारियों का उल्लेख किया गया है। सींग से बनी होने के कारण इन्हें ‘श्रृंग‘ के नाम से जाना जाता था। उनका आकार भी सिंग के समान अद्र्ध चंद्राकार होता था।
सम्राट हर्षवद्र्धन रचित नाटक ‘रत्नावली’ में साँप के फन की आकृति के समान बनी पिचकारियों का वर्णन किया गया है जिनमें भूषणमणि जड़ी हुई होने का उल्लेख भी हुआ है। कही-कही बाँस और चमडे़ की बनी पिचकारियों का उपयोग भी होता था। पीतल की बनी पिचकारियां तो आज भी कई घरों में देखी जा सकती हैं।
सोने की पिचकारियों का प्रयोग होता था शाही होली में
उन दिनों राजा-महाराजाओं, नवाबों व सेठ-सामंतों के यहाँ सोने की बनी पिचकारियों से होली का रंग बरसाया जाता था। इनके महलों, बगीचों में चलने वाले फव्वारे भी इस मौके पर रंगीन एवं खुशबूदार रंग बरसाते थे। कालीदास के रघुवंश में इस प्रकार की स्वर्णमय पिचकारियों का उल्लेख भी आया है।
पिचकारियों का सफर अब आधुनिक हो चला है
जमाने में लगातार आए आधुनिकताओं के दौरों ने पिचकारियों का रंग-रूप और कलेवर तक बदल कर रख दिया है। रंगों और पिचकारियों का उपयोग होली के दिनों मेें व्यक्ति को सुनहरे रंगों से रंगने में किया जाना इस बात को संकेतित करता है कि हर व्वक्ति के जीवन में सुनहरे रंगों और रसों के साथ तरक्की के बहुआयामी दिग्दर्शन का संकल्प इसमें छिपा हुआ है।