कॉलम : अतीत के आईने से
वर्धमान सिंह मेहता, व्यवसायी
जन्म 1943 में धानमण्डी स्थित मेहतों का पाड़ा में हुआ। बचपन से ही मण्डी देखी जो आज त· देख रहा हूं। स्कूल में पढ़ते समय धानमण्डी में प्रभुलालजी मास्टर साहब, जगदीश चौक के सामने बिरजू बाऊजी आज भी याद हैं। उनके कठोर व्यवहार, अनुशासन के कारण ही हम कुछ सीख पाए। आज के लड़कों में अध्यापकों के प्रति वो कमिटमेंट नहीं रहा।
पिताजी और बड़े भाईसाहब भी मण्डी में ही किराने की दुकान चलाते थे। उस समय उदयपुर की आबादी अमूमन 50-60 हजार के आसपास रही होगी। प्रतिदिन सुबह 7.30 बजे दुकान खोलना और शाम को 6 या 6.30 बजे तक मंगल करना दिनचर्या में शामिल था। रविवार की तरह उस समय सिर्फ चतुर्दशी और अमावस्या को दुकान मंगल रहती थी। यानी पूरी छुट्टी। होली के बाद शीतला सप्तमी तक दुकान नहीं खोलते थे। जैसे अभी दीपावली के बाद सात दिन तक गुजराती पर्यटक यहां आते हैं, उस समय होली के बाद हम बाहर जाते थे। बाहर जाने के लिए वाहन तो थे नहीं, कुछ एक बसें चलती थीं। बाकी यहीं गंगू कुंड, उबेश्वर महादेव वगैरह पिकनिक मनाने चले जाते। उस समय 300 रुपए प्रतिमाह में हम आठ जनों का गुजारा आराम से हो जाता था यानी आज कोई बच्चा भी अपने हाथखर्च के लिए दस रुपए नहीं लेता और दस रुपए प्रतिदिन में हमारे घर का खर्च चल जाता था। हाथखर्च के लिए दो फोंतरिये मिल जाते थे। उदयपुर में पहला स्कूटर शायद व्हेतक सिनेमा के मैनेजर सरदारजी लाए थे। मैंने स्कूटर खरीदा 1971 में। उस समय आठ हजार रुपए में मिलता था। स्कूटर की ब्लैक इतनी थी कि एक बार तो बुकिंग के लिए उमड़े लोगों को तितर-बितर करने के लिए घोड़े दौड़ाने पड़े। एक -दो जने उसमें मारे भी गए थे।
वर्ष 1971 में आई बाढ़ की याद आते ही आज भी सिहर उठता हूं। उस समय कोटा गए थे चातुर्मास में. वापस जब आए तो यहां आयड़ नदी बिलकुल सड़क से ऊपर चल रही थी. बड़ी मुश्किल से हाथ पकड़-पकड़ कर नदी पार की. गुरु महाराज श्री चौथमलजी मुनि के प्रवचन आज भी याद हैं। उस समय तीज का चौक में उनके प्रवचन होते थे. तब हर जाति, सम्प्रदाय के लोग उन्हें सुनने आते थे। प्रतिदिन सुबह 5 बजते ही महलों से नगाड़े बजते थे जिनकी आवाज पूरे शहर में सुनाई देती थी। यह संकेत था कि 5 बज गई है। शहरकोट के दरवाजे रात को तोप चलने के बाद बंद हो जाते थे। एक कहावत मेवाड़ में काफी मशहूर रही है। शहर सुल्तान रो वासो, आठ वार नौ तैवार। यानी शीतला सप्तमी के दिन सुबह पूजा और शाम को छोटी गणगौर का मेला लगता था। इस प्रकार आठ दिन में नौ त्योहार मनाए जाते थे। बैंक के नाम पर मात्र दो घंटाघर स्थित राजस्थान बैंक और मोती चोहट्टा में पंजाब नेशनल बैंक थे। उस समय साढ़े बारह न्यात का एक जीमण हुआ जो आज भी स्मृति में हैं। रंगलाल दीपलाल अग्रवाल ने उनके लड़के आनंद की शादी पर छह जाति तो अग्रवाल और छह जाति जैन, आधे में अन्य जातियों के लोग शामिल हुए। बीच में कुछ समय तो ऐसा आया कि अन्न की कमी के कारण सप्लाई डिपार्टमेंट से लिखवाकर लेना पड़ता था कि मैं जीमण कर रहा हूं। अगर कोई बिना पूछे जीमण कर लेता तो सप्लाई डिपार्टमेंट छापा मारता था। उस समय सूरजपोल स्थित अग्रवालों के नोहरे में ज्वार बिकता था। लोग ज्वार ले जाते और बनाकर खाते थे। एक खास बात अवश्य बताना चाहता हूं कि यहां चौगान [गांधीग्राउण्ड] स्थित पद्मनाथ स्वामी का मंदिर पूरे विश्व में पहला है। ये आने वाली चौबीसी के पहले तीर्थंकर हैं। संयुक्त परिवार के मामले में आज भी हम सब जगह मिसाल के रूप में माने जाते हैं।
[जैसा उन्होंने उदयपुर न्यूज़ को बताया]