– राजस्थान विद्यापीठ में संग्रहण की परंपरागत तकनीक व कृषि पद्धतियों पर राष्ट्रीय सेमिनार में आए विशेषज्ञ
Udaipur. भारत में हर साल 30 फीसदी अनाज सड़ जाता है। जो न किसी जरुरतमंद के पेट में जाता है और न ही उसका कोई सार्थक प्रयोग हो पाता है। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण यह है कि हमारे पास भंडारण की समुचित व्यवस्था नहीं है। यदि है तो वो भी सूक्ष्म स्तर पर।
यह विचार उभरे विद्यापीठ में संग्रहण की परंपरागत तकनीकी व कृषि पद्धतियों पर आयोजित राष्ट्रीय सेमिनार में। विद्यापीठ के साहित्य संस्थान की ओर से आयोजित इस सेमिनार में देशभर के सैकड़ो विशेषज्ञ हिस्सा ले रहे हैं। भारत में सडऩे वाले अनाजों के सही उपयोग के लिए जरुरी है कि हम परंपरागत कृषि नुस्खों पर भी ध्यान दें। पुरातन समय की बात करें तो पहले कभी अनाज नहीं सड़ता था और न हीं कभी प्याज लहसून को लेकर मारामारी की स्थिति बनी। वर्तमान में किसान भी दिशा भ्रमित हो गए हैं, इसी का यह परिणाम सामने है। मुख्य वक्ता डेकन कॉलेज पुणे के प्रो. वी एस शिंदे तथा मुख्य अतिथि कुलपति प्रो. एसएस सारंगदेवोत थे। अध्यक्षता पुरातत्व विभाग हिमाचल के पूर्व निदेशक डॉ. ओसी हांडा थे। विशिष्ट अतिथि डॉ. एलएन नंदवाना ने भी विचार व्यूक्तॉ किए।
बिना खर्च में बेहतर परिणाम : सेमिनार में डॉ. ओसी हांडा ने बताया कि प्राचीन समय में फूल पत्तियों, मिट्टी आदि के माध्यम से भंडारण किया जाता था। इसमें किसी प्रकार का खर्च नहीं होता था। इसके परिणामों की बात करें तो कभी अनाज या अन्य कोई सामग्री नहीं सड़ती थी। डॉ. हांडा ने बताया कि हिमाचल प्रदेश में पलाश के छिलकों को घरों में जाकर आज भी मच्छरों और अन्य कीटों से सुरक्षा अपनाई जाती है, वहीं प्याज और लहसुन की गांठ बांधकर उसे खुली हवा में रख दिया जाता है, जिससे वो कभी खराब नहीं होती है।
किसानों को समझाना होगा : सेमिनार में सीतामाऊ नट नागर शोध संस्थान के निदेशक प्रो. एमएस राणावत ने कहा कि वर्तमान में किसान भी भ्रमित होते जा रहे हैं। उन्हें लगता है, जिस खाद्यान्न के भाव अधिक होते हैं किसान उसकी पैदावार अधिक कर बैठता है। एक तरफ जहां एक सी फसल उगाने से मिट्टी की उर्वरता समाप्त होती है, वहीं किसानों को बंपर पैदावार होने के बाद भी उचित लाभ नहीं मिल पाता है।
पद्धतियों का समन्वय जरुरी : कुलपति प्रो. एसएस सारंगदेवोत ने बताया नई पद्धतियों का इस्तेमाल हमें करना ही होगा, लेकिन हम पुरानी पद्धतियों को भूल भी नहीं सकते हैं। देखा जाए तो हर लिहाज से परंपरागत कृषि तकनीक और पद्धतियां काफी कारगर सिद्ध हुई है। इसकी विशेष बात यह रही है कि इसका इस्तेमाल करने से अतिरिक्त बजट आदि का भी कोई प्रावधान नहीं करना होता है। आयोजन सचिव डॉ. जीवनसिंह खरकवाल ने बताया कि सेमिनार में तीन तकनीकी सत्रों में 35 से अधिक पत्रों का वाचन हुआ। जो नागालैंड की परंपरागत कृषि पद्धतियों, कृषि एवं पशुपालन एवं कृषि कानून एवं अधिकारों पर आधारित थे। साहित्य संस्थान के निदेशक डॉ. ललित पांडेय ने संस्था का परिचय देते हुए धन्यवाद दिया।