‘हमारा समय और साहित्य: एक दृष्टि’ पर राष्ट्रीय संगोष्ठी
साहित्य सहिष्णुता, विश्वट बंधुत्व का प्रतीक : सारंगदेवोत
उदयपुर। आजादी के 65 साल बाद भी आज साहित्य की दयनीय स्थिति है। पहले प्रकाशन की समस्या थी पर अब यह समस्या भी नहीं रही। फेसबुक, ब्लाक चैनल्स, ई-पत्रिका की बढ़ती संख्या (32796 रजिस्टर्ड हिन्दी समाचार) इन पत्रिकाओं को 15 करोड़ 54 लाख 477 व्यक्तियों के पास पहुंचती है। अंग्रेजी पांच करोड़ के आसपास। इससे लगता है कि साहित्य हासिये पर नहीं है।
ये विचार जनार्दनराय नागर राजस्थान विद्यापीठ के संघटक माणिक्यलाल वर्मा श्रमजीवी महाविद्यालय के हिन्दी विभाग द्वारा मंगलवार को ‘‘हमारा समय और साहित्य: एक दृष्टि’’ विषयक पर राष्ट्रीय संगोष्ठी के अवसर पर मुख्य वक्ता के रूप में जामिया मिलिया इस्लामीया विश्वषविद्यालय दिल्ली के प्रो. महेन्द्रपाल शर्मा ने व्यक्त किए।
उन्होंने कहा कि आजादी के बाद हमारे देश की राजनीतिक स्थिति पावर शेयर की है। क्षेत्रीय दलेां का प्रभाव भी बढ़ रहा है। साहित्य इनसे अलग नहीं है, इसकी पठनीयता है पर कुछ ऐसे मुद्दे विकसित हो रहे है जिसके कारण साहित्य की उपयोगिता, उपादेयता, पठनीयता प्रभावित हो रही है। रचना वस्तु व पाठक उपभोक्ता में परिवर्तित हो रहे है। सामाजिकता का हास आदि मुद्दों की चर्चा मीडिया में होती रहती है। ऐसी स्थिति में साहित्य की पठनीयता कम होती जा रही है और श्रोताओं की संख्या भी कम होती जा रही है।
विभागाध्यक्ष डॉ. मलय पानेरी ने बताया कि विषिष्ठ अतिथि जयनारायण वि.वि. जोधुपर के पूर्व आचार्य प्रो. कल्याण सिंह शेखावत ने कहा कि साहित्य पर युग का प्रभाव होता है। कवि जिस युग में रहता है उसका प्रभाव ग्रहण करता है। और वह समाज को प्रभावित करता है। समय और साहित्य सापेक्ष्य होते है। साहित्य से दृष्टि है और विनाश भी। जब देश में भौतिकता बढ़ रही है तो साहित्यकार को जागृति लानी होगी। यह सच है कि साहित्य हाशिये पर जा रहा है पर हम लोग उसे और बढ़ावा दे रहे हैं। आज जरूरत है सशक्त लेखनी की। युवाओं को लेखनी के माध्यम से समाज में एक क्रांति लानी होगी। आज आवश्याकता इस बात की है कि कोई साहित्यकार तुलसी के राम जैसे प्रेरणा पुरूष का निर्माण करें। आजादी के 65 वर्ष बाद भी हमारी परिस्थिति नहीं बदली इस पर कलम की क्रांति की जरूरत है। पहले शब्द भेदी बाण होते थे अब बाण नहीं रहे, पर शब्द की शक्ति अभी समाप्त नहीं हुई है। डीन डॉ. सुमन पामेचा ने बताया कि अध्यक्षता करते हुए कुलपति प्रो. एस.एस. सारंगदेवोत ने कहा कि कला एवं साहित्य का वास्तविक उद्देश्यु सत्यम शिवम सुन्दरम की अनुभूति करना तथास परम् सौन्दर्य का सृजन करना जो मानव की अनेाठी धरोहर है। साहित्य समाज का दर्पण ही नही अपितु सहिष्णुता एवं विष्व बंधुत्व का प्रतीक है। वाल्मीकि, तुलसीदास, शेक्सपीयर, टैगोर, टाल्सटाय, मिल्टन आदि ऐसी विभूतियां है जो शरीर से उपस्थित नहीं है किन्तु ये सभी अपनी कृतियों के माध्यम से आज भी जीवित है व उनकी आत्माएं उनके साहित्य में आज भी बोल रही हैं। आलोचक प्रो. नवलकिशोर शर्मा ने कहा कि वर्तमान परिस्थितियों में सच बोलना बहुत मुष्किल हो गया है। आज साहित्य की हर कृति पर कोई न कोई संगठन विरोध करने के लिए खड़ा हेा जाता है। साहित्यकार को सच कहने की आजादी नहीं है। विशिष्टे अतिथि डॉ. सुरेश ऋतुपर्ण ने कहा कि समय हमें रच रहा है या हम समय को रच रहे है। समय नहीं आता जाता हम उसे बदल रहे है। यह तो चाक के पहियों पर घूमने वाला मिट्टी का ठेला है जिसे हमारी उंगलिया आकार दे रही है। समय को सुदृढ बनाना हमारा दायित्व है। संचालन ममता पानेरी ने किया, धन्यवाद राजेश शर्मा ने दिया।